हमारे बारे अच्छे मित्र हैं जब भी बोलते हैं निरीह type का लगते हैं.. आज भी बोले की ये मनमोहन जी कितने अच्छे हैं और न जाने कैसे कैसे घिनौने लोगों ने इन्हें बिना मतलब का ठोक रखा है.. कभी 2G तो कभी कोयला.. ?
घिनौना शब्द मुझे तड़ से लगा.. तो मैंने पूछ ही लिया की घोष बाबु जो इनका विरोध करे वो घिनौना कैसे और ये किसने आपको कह दिया? तो बोले सब ही तो कह रहे हैं.. :D :D :D
वर्ष -2004 तिथि : अलिखित
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बहुत बार सोचा है की जिंदगी मैं कुछ बदलना चाहिए... और कुछ नहीं तो मेरे सोचने का ढंग! लेकिन यह भी मेरे चेहरे की तरह है जो नहीं बदलती.... और फिर कुछ भी नहीं बदलता |
.... चलो ना बदलना है तो ना बदले... २० साल जिया हूँ.. वही दिन वही रात.. आगे भी जी लूँगा.. !
या फिर शायद बहुत कुछ सोचने के लिए बांकी है.. कुछ अपने बारे मैं...| जिंदगी का हर क्षण तात्कालिक होता है .. और हर क्षण की एक शुरुआत होती है.. एक मध्य और .. एक अंत.. | अंत ? .. यानि खत्म.. और खत्म होने का गम अकेले शायद मुझे ही होता हो ऐसा नहीं है | ऐसे कही पहलु हैं जिसे मैंने देखा ही नहीं या शायद किसी डर से देखना ही नहीं चाहा .. क्यूँ? .. हमेशा भागता रहा.. खुशी दुशरों मैं ढूंढता रहा.... और खुशी कभी नहीं मिली.. |
नहीं मैं खुशी की बात नहीं करूँगा.. क्यूंकि खुशी और गम तो क्षण का मध्य है.. आज मैं बात करूँगा निराशा और संतुष्टि की .. जो अन्त है.. जिसके बारे मैं मैंने कभी भी नहीं सोचा!
मुझे नहीं पता संतुष्टि क्या होती है क्यूंकि जब भी मिली तो पूरी नहीं.. उसके साथ एक अजीब सी निराशा भी थी.. या फिर निराशा नहीं तो डर!.. असल मैं संतुष्टि क्या होती है? शायद किसी को नहीं पता.. क्यूंकि संतुष्टि अपने दमन मैं डर समेटे होती है.. डर यही .. कुछ मिल गया तो खो जाने का .. और नहीं मिला तो संतुष्टि नहीं .. निराशा मिलती है |
दुनिया के साथ भीड़ मैं पागलों की तरह भागता हूँ.. कभी प्यार की तलाश मैं.. कभी पैसे की तलाश मैं.. तो कभी रिश्ते की तलाश मैं.. बाकि सब की तरह खाली हाथ .. बस भागता जा रहा हूँ.. रेगिस्तान मैं पानी के लिए.. एक ना खत्म होने वाली दौड़... लक्ष्य दिखाई ही नहीं देता.. यहाँ केवल रास्ते हैं.. एक रास्ता दुशरे से जुड़ता जाता है.. दोनों तरफ भूरी झाड़ियाँ.. और मेरे साथ भागते लोग.. किसी के पीछे मैं.. और मेरे पीछे कोई और.. ! पाने की खुशी और.. छूटने का गम.. निराशा और संतुष्टि के बारे मैं सोचे ही कौन..! .. एक अन्त .. नई शुरुआत .. उतनी ही बोझिल .. उतनी ही बदहवास .. वही सड़क .. वही झाड़ियाँ.. कुछ भी नया नहीं.. सब कुछ वही पुराना... कुछ बदला?
मेरे साथ चलने वाले लोग बदले.. जिन्हें मैं दोस्त कहता था वो बदले.. जिन्हें मैंने दुश्मन कहा , वो बदले ...... बांकी सबकुछ वही रहा.. अजनबी अपनों की तरह.. अपने अजनबियों की तरह.. या शायद मुझे अपने.. और अजनबी की परिभाषा ही नहीं पता या फिर.. यहाँ कोई अजनबी और अपना नहीं है.. बस वो लोग हैं.. जिनके साथ मैं भाग रहा हूँ.. कुछ की तलाश मैं.. पर पता नहीं क्या!
वैसे तो मैंने कभी पूजा पाठ किया नहीं और ना ही इसकी कभी जरुरत समझा..
मंदिरों मैं गया क्यूंकि लोग खीच के ले गए और कभी कभी बहुत से मंदिर मैं इस्सलिये
गया की बहुत सुन्दर थे.. |
कुछ लोगों के टिका टिप्पणी को यदि सही मान लूँ तो मैं नास्तिक हूँ..
मतलब जिसकी आस्था नहीं है भगवान मैं|.. परन्तु मैं अन्य शब्दों पे भी गौर करना
चाहता हूँ जैसे.. निराध्म, अधर्मी इत्यादी.. ऐसे कुछ लोगों को शायद इन शब्दों का
ज्ञान नहीं है.. नहीं तो कहीं यही कह रहे होते मुझे..
एक बड़ी सुन्दर सी बात सामने आती है जब भारत की बात करते हैं.. और वो
गाना गुनगुनाने का मन करता है.. ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने’.. दिल गर्व से
चौरा हो जाता है की हम उस देश के वाशी
हैं.. जिस देश मैं गंगा बहती है.. (वैसे गंगा की हालत आज क्या है बताने की जरुरत
नहीं है).. एक राष्ट्र की तरह हम पहले थे जिन्होंने शुन्य का आविष्कार किया, पहले
थे जिन्होंने शल्य चिकित्सा (Operation) का आविष्कार किया, पहले थे विश्व मैं जिन्होंने
आयुर्वेद (Medication) को लिपिबद्ध किया.. पहले थे जिन्होंने हाथी को सेना मैं
शामिल किया (या जो कर पाए).. पहले थे जिन्होंने अर्थशास्त्र का निर्माण किया.. और
पहले राष्ट्र जिसने गणतंत्र का अविष्कार किया|
तो चलिए गर्व करने के लिए तो इतिहास है .. बेहद समृद्ध.. ज्ञान है.. बेहद कुशल..
फिर क्या हुआ.. फिर ऐसी क्या बात हुई की भारत को ४०० साल तक गुलाम बना दिया गया..
एक ऐसा देश जिसे अलेक्सेंडर महान नहीं जीत पाया.. आखिर क्या बात हुई..?
राष्ट्र की परिभाषा उनके लोग होते हैं.. उनकी कार्यकुशलता होती है.
उनकी निर्माण की क्षमता होती है. राष्ट्र किसी भूमी का नाम नहीं है.. जैसे लोगों
के बिना घर नहीं होता.. उसी तरह नागरिक के बिना राष्ट्र नहीं होता..
अब दूशरा पहलु ये है की हम भले ही कभी समृद्ध रहे हों.. लेकिन उस्सी
समयकाल मैं अन्य सभ्यता भी थी जो हम से कमतर ही सही लेकिन लगातार प्रगति कर रही
थी.. जैसे की मंगोलियन सभ्यता.. (वो कितने मानव थे मैं इस बहस मैं नहीं फसना
चाहता.. क्यूंकि ये मेरे इस लेख का विषय नहीं है).. जिन्होंने घोड़े पे कब्ज़ा
किया.. आज की संदर्व मैं ये बात शायद उतनी महत्वपूर्ण ना लगे .. लेकिन ये उनकी
बहुत बड़ी उपलब्धि थी... और इस्सी तरह से पूर्व का समाज भी उन्नतिशील था..
कहते हैं.. सेना राष्ट्र की पहचान होती है.. उसके प्रगति का धोतक होती
है.. ये आज भी लागु है और उस समय भी था.. | लेकिन ज्ञान ही राष्ट्र को समर शक्ति
देती है.. और जब ये कमजोर हुआ तो भारत को गुलाम बना दिया गया.. इसके ज्ञान केंद्र
(Knowledge Centre) को बर्बाद कर दिया गया.. और फिर इस ४०० बर्षों तक कोई
अविष्कार.. कोई नई अवधारणा इस राष्ट्र के कोख से नहीं निकली.. (कुछ अपवाद को यदि
छोड दिया जाये तो)..
अन्य अर्थ मैं इसी भारत की विचारधारा, और प्रगतिशीलता को कुंद कर दिया
गया.. और ज्यादा अच्छा तो ये कहना होगा की लगभग रोक ही दिया गया.. | आप एक जानवर
को भी बंधने पे मजबूर नहीं कर सकते हैं.. जब तक की उससे ये ना मनवा लें की तुम्हें
बंधना ही होगा.. तुम इस्सिलिये इस धरती पे आये हो.. तुम इस्सी लिए बने हो.. और ये
केवल उसके आत्म ज्ञान को खतम कर के ही किया जा सकता है.. जैसे ही उसका ये ज्ञान
खतम होगा की वो कोई है और उसका अस्तित्व है.. वो बंधने के लिए बिना सोचे विचारे
तैयार रहेगा.. दूध देगा .. मांस देगा.. और ये कोई जटिल तर्क नहीं है.. बहुत
सामान्य है..
इन ४०० बर्षों तक हमारी मानसिकता यही बना दी गयी थी.. और हम प्रगतिहीन
हो गए थे.. जबकि अन्य राष्ट्र प्रगतिशील रहे.. प्रेस का अविष्कार किया.. बन्धूक का
किया.. तोप का किया.. नई शासनतंत्र का किया.. परमाणु बम का किया.. और जैसे ही हमें
ज्ञान आया.. हम रस्सियाँ तोड़ के भागे.. गुलाम तो नहीं रहे .. लेकिन अभी तक जानवर
ही थे.. वैसे लोग थे जिनकी विचारधारा अभी तक कुंद थी.. आप मान लें की किसी और प्रगतिशील
सभ्यता मैं .. आम आदमी नाम का कोई शब्द नहीं है.. और ना ही इन्हें भेड़ की तरह समझा
जाता है..
१९४७ जब हम आजाद हुएं .. और एक और राष्ट्र का जन्म हुआ कहते हैं..
इतना बड़ा मानव परस्थान/प्रवास (Migration) और इस वजह से नरसंहार.. आज तक के
ज्ञातव्य इतिहास मैं नहीं हुआ.. वैसे भी प्रवास(Migration) सभ्यता की देन नहीं
है.. असभ्य (Animal) ही प्रवास (Migrate) करते हैं.. ये वो पहला तथ्य है इस बात का
की जो मैंने ऊपर कहा स्वतंत्र जानवर थे.. | और इस की वजह भी बेहद अमानवीय थी.. तर्क
था धर्म.. और इस्सी शब्द से मैंने ये लेख लिखना शुरू किया था.. |
अब मुझ जैसे निराध्म को कोई समझाए की ये है क्या.. ? इन्हें जिस भी
नाम से पुकारा गया.. या ये चाहे जहाँ भी पूजा या नवाज पढ़ने जाते हों.. इंसान के
अलावा कुछ और भी थे क्या.. ? ये कोन बताएगा की अच्छा कोन और क्या है? लेकिन जैसा
की मैंने पहले कहा.. ये इंसान तो थे ही नहीं.. तो इतनी समझ कहाँ से आती.. इतना
आत्म ज्ञान भी कहाँ से आता.. और यदि ये कुतर्क ना हो तो इनके स्वतंत्रता के लिए
लड़ना भी भेडचाल ही था.. किसी ने कहा और लड़ परे.. बिना किसी आत्मिक ज्ञान के.. फिर
भी होना तो ये चाहिए था की.. अंत मैं ज्ञान आ जाये.. और आया भी.. (इतना भी
निराशावादी नहीं हूँ मैं) लेकिन.. ये बहुत काफी नहीं है.. आज के संदर्व मैं भी..
शायद हमें और इंतेजार करना होगा.. और आत्मज्ञान की जरुरत होगी.. और खुद की तरफ
देखना होगा और समझना होगा.. की हम क्या हैं.. और हम क्या होना चाहते हैं..
चाहे आँधियों की फुहार हो चाहे बरसा बन बयार हो.. तुम कभी हिलो नहीं .. तुम बस डटो वहीँ.. वो दवन दल था तेज था.. वो बिन कुर्शियों की मेज था.. india tv मैं आया सनसनीखेज़ था.. ये तुम की घबराना नहीं.. और बाद मैं पछताना नै.. अब हाल कर ही देन बयां की.. पेट तुम घबराना नहीं..
चाहे आँधियों की फुहार हो चाहे बरसा बन बयार हो.. तुम कभी हिलो नहीं .. तुम बस डटो वहीँ.. वो दवन दल था तेज था.. वो बिन कुर्शियों की मेज था.. india tv मैं आया सनसनीखेज़ था.. ये तुम की घबराना नहीं.. और बाद मैं पछताना नहीं.. अब हाल कर ही देन बयां की.. पेट तुम घबराना नहीं..
Ab'ul Hasan Yamīn ud-Dīn Khusrow (1253-1325 CE) (Persian, Urdu: ابوالحسن یمینالدین خسرو}}; Hindi: अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरौ), better known as Amīr Khusrow (also Khusrau, Khusro) Dehlawī (امیر خسرو دہلوی; अमीर ख़ुसरौ दहलवी), was an Indian musician, scholar and poet. He was an iconic figure in the cultural history of the Indian subcontinent. A Sufi mystic and a spiritual disciple of Nizamuddin Auliya of Delhi, Amīr Khusrow was not only a notable poet but also a prolific and seminal musician. He wrote poetry primarily in Persian, but also in Hindavi.
Zehal-e miskin makun taghaful, duraye naina banaye batiyan;
ki taab-e hijran nadaram ay jaan, na leho kaahe lagaye chhatiyan.
Shaban-e hijran daraz chun zulf wa roz-e waslat cho umr kotah;
Sakhi piya ko jo main na dekhun to kaise kaatun andheri ratiyan.
Yakayak az dil do chashm-e jadoo basad farebam baburd taskin;
Kise pari hai jo jaa sunaave piyare pi ko hamaari batiyan.
Cho sham'a sozan cho zarra hairan hamesha giryan be ishq aan meh;
Na neend naina na ang chaina na aap aaven na bhejen patiyan.
Bahaqq-e roz-e wisal-e dilbar ki daad mara ghareeb Khusrau;
Sapet man ke waraaye raakhun jo jaaye paaon piya ke khatiyan.
Do not overlook my misery by blandishing your eyes,
and weaving tales; My patience has over-brimmed,
O sweetheart, why do you not take me to your bosom.
Long like curls in the night of separation,
short like life on the day of our union;
My dear, how will I pass the dark dungeon night
without your face before.
Suddenly, using a thousand tricks, the enchanting eyes robbed me
of my tranquil mind;
Who would care to go and report this matter to my darling?
Tossed and bewildered, like a flickering candle,
I roam about in the fire of love;
Sleepless eyes, restless body,
neither comes she, nor any message.
In honour of the day I meet my beloved
who has lured me so long, O Khusrau;
I shall keep my heart suppressed,
if ever I get a chance to get to her trick
की वो मुसलसल झूठ बोलेंतो ना सच का मुजायरा
की किशन था रोका उनको.. तो कहीं ना सचा का
मुजायरा होता..
तो अब ये तय कर लें..
और फ़िक्र भी.. ये डी होता..
तो अब ये तय कर लें.. और फिक्र भी की ना हॉट
तो क्या मुजायरा होता..
हमनें हुकिमिनी की फिक्र भी नहीं..
और सोचते फिरते हैं इलाज..
ना ये दर्द हटा ना हाकिम होता ना तो खुका की फिक्र होती..
वो तो हर से-येआयाम पीला जाता था..
उससे तो बेहद खुस थी मल्कियत आपनी..
वो तो हर रात चला आता था..
उससे कही अच्छी थी बेगरत अपनी..
वो कही है तो दिखाई नहीं देता..
उससे तो अच्छी थी गुलामी अपनी..
ना खुदा था तो क्या होना था..
उससे तो बेहतर थी बेगानी अपनी..
वो नहीं था तो कोई और होता..
उसकी चाहत ने दुबै दी खुद की कश्ती अपनी..
अब ना रोयें तो , चाहें किसे ?
जिसने सरे राह लूट ली इज्ज़त अपनी..
वो ना था तो खुदा था..
किसने मांगी थी .. ग़ुरबत अपनी..
-रवि सिंह..
फ़िक्र नहीं तुसे ना मिलने ना मिलने का..
हम कब्र मैं पड़े सरे राह देखते हैं.. नींद नहीं आती तुम्हें भूल के भी लेकिन..
हम तो सपनो मैं भी तुम्हारी बारात देखते हैं..
चाँद की फ़िक्र चाँदनी को तो होती ही होगी...
हम फ़िक्र करते हैं और हयात देखते हैं..
फिक्र्मंदों की फिरकी का खूब ख्याल रहता है हमें... हम पागल हैं उन फिकरों मैं हालत देखते हैं..
नींद नहीं आती सपनों मैं तुम्हारी बारात देखते हैं..
मंद मोहन और खिलानी..
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खिलानी :
अरे मंद मोहन प्यारे..
क्या cool लग रहा है वाह रे..
शादी शुदा होके भी लगते हो कुंवारे..
हमारी तो अब दोस्ती की बात भी क्या रे?
कभी आओ हमारे द्वारे..
इस बार ना लाना लारे..
लैला मजनू ले बाद जिक्र होंगे हमारे.
friendship के favourite राजदुलारे
ऐसा रिश्ता जुड गया दरमयान मेरे और तुम्हारे..
मैं मशाला तुम पापर करारे..
मैं रम्भा तुम आरे..
मैं शेर तुम चबा रे..
मैं शुर तुम फबारे//
मैं बोलूं तुम जा रे..
मैं वजनी तुम भाड़े
मैं शतुत जिलेबा तुम ठण्डा उठा रे..
मैं 2+2 तुम चारे..
मंद मोहन:
अरे भैया खिलानी..
तुमने क्या छेर दी कहानी..
अपनी दोस्ती है.. कुछ अरसे के लिए ला पानी..
मिसालें ठीक दे तुमने जरा खुल के थी समझनी..
जैसे मैं गिलास तुम पानी..
मैं दिलबर तुम जानी..
मैं कदर तुम दानी..
मैं कढ़ाई तुम बिरयानी...
मैं भरपूर तुम जवानी..
मैं छटी का दूध तुम नानी..
छल्ला दे जा निशानी तेरी मेहरबानी..
खिलानी:
खड़े है.. सीधे हैं.. ईमानदार हैं.. सच्चे हैं..
मुझे रातों रात अंदाजा हुआ आप कितने अच्छे हैं..
आपको फावोरेट नेसन मान के साथ चलना है..
दस्ताने पहन कर ले हाथों मैं हाथ चलना है...
एक पेड़ पे कतार बैठा गिद्धों ने पूछा भाई
तुझे जाना कहाँ है?
कंकरों के धुंध को हटा के कहा..... बता खाना कहाँ है!
ना पत्ते पड़े ना मंजर लगे, बस आम हो गए
चुप रह गए भुनभुनाते, सबके गुलाम हो गए?
सब लोग बतलाते हैं अलग अलग घर का पता
हम सोच मैं पड़ गए की जाना कहाँ है?
'तुम आगे बढ़ो हम साथ हैं' का नारा रट लिए
बेफिक्र आश्की के मौशकी मैं डूबे रहे
एक-बतन थे, एक-जहाँ हैं, कुफ्र के मालिक भी हम
फिरते रहिये कहते हुए बेरोजगार आशियाना कहाँ है!
रास्ता नहीं चलता हम चलते हैं .. और से हम ही रास्ता है..?
ये सवाल शुरू नहीं बल्कि अंत बयान करता है.. हमारी क्या औकात की पूछ लें ये रस्ते कहाँ जाती हैं..?
ये वक्त नहीं बल्कि तारीखें हैं..
जहाँ हम जिए और मरे..
ये तारीख कुछ और बयां करती हैं..
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हमने हुक्मरानों के चार फिकरे के पढ़ लिए..
की हम समझते हैं.. सारे रस्ते हमसे निकल के जाती.. है..
तो ये भी पूछ लीजिए काया हमसे.
पूछ के गिराया गया था फेट बॉय..?
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आपको उसकी तस्वीर भी..
जेहन मैं एक घाव करेगी..
जिसका इलाज वक्त के पास भी नहीं है..
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हम बे वजह मरने वालों से पूछते हैं कौम.. ?
इसका हिसाब भी उस्सी से लो.. जिसने कहर बरपा किया
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यदि नहीं है सकत तो क्यूँ नहीं कह देते की वास मैं है नहीं...?
और कुछ सकत को .. तो शायद ना होने देंगे फ़ना..
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इस मुल्क-ऐ=मियत को कर दो फनाह..
एक बार तो बता दो.. की बजह थी ही क्या?
ये बिच बिचौअल .. मन मनुअल करते हैं..
शायद ये सच है खोटे सिक्के खनकते हैं..
ये दुशरों के चमक से चमकते हैं..
ये सच है खोटे सिक्के ही चमकते हैं..
इनका रोना और चीखना आह्वान होता है..
इनका प्रलोभन दिल चिर निकल जाता है..
ये राह कसाई का बतलाते हैं..
ये सच है खोटे सिक्के खनकाते हैं..
जब राह पकरी तब राह मोड़ा..
थे राह मैं पड़े और राह छोड़ा
ये सच्ची आग उगलते हैं..
ये सिक्के सच बोलते हैं..
आज सिंधु मैं ज्वार उठा है
लग्पथ एक ललकार उठा है
कुरुक्षेत्र के कण कण से फिर
पंचजन्य हुंकार उठा है |
सत् सत् आठों हाथो को सहकर, जीवित हुन्दुस्तान हमारा
जग के मस्तक पर रोली सा शोभित हिंदुस्तान हमारा
दुनिया का इतिहास पूछता -
रोम कहाँ यूनान कहाँ है?
घर घर मैं सुबह तिल जलाता
बहून्नत ईरान कहाँ है? दीप बुझे पश्च्चमी गगन के, व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा
किन्तु चिर कर तम की छाती चमका हिंदुस्तान हमारा
हमने उड़ का स्नेह लुटाकर पीड़ित ईरानी पाले हैं..
निज जीवन की ज्योतो जलाकर मानवता के दीपक बाले हैं..
जग को अमृत का घट देकर हमने विष का पान किया था
मानवता के लिए हर्ष से अश्थिवज्र का दान किया था
जब पश्चिम ने बन-फल खाकर छाल पहनकर लाज बचाई
तब भारत से साम गान का स्वर्गिक सुर था दिया सुनाई
अज्ञानी मानव को हमने दिव्य ज्ञान का दान दिया था
अम्बर के ललाट को चूमा , तल के स्मृति को छान लिया था
साक्षी है इतिहास प्रकर्ति सबसे अनुपम अभिनय होता
पूरब मैं उगता है सूरज, पश्चिम के तम मैं लय होता
विश्व गगन पर अनगनित गौरव के दीपक अब भी जलते हैं.
कोटि कोटि नयनों मैं स्वर्णिम युग के सपने पलते हैं.
किन्तु आज पुत्रों के शोणित से रंजित वशुधा की छाती
टुकरे टुकरे हुई विभाजित बलिदानी पुरखों की थाती
कण कण पर शोणित बिखरा है, पग पग पर माथे की रोली
इधर मणि सुख की दिवाली, और उधर जन-धन की होली
मांगों का सिंदूर, चिता की भस्म बना हा हा खता है..
अनगनित जीवन दीप बुझा पापों का झोंका आता है.
तट से अपना सर टकराकर झेलम के लहरें पुकारती
यूनानी का रक्त दिखाकर चंद्रगुप्त को है पुकारती
रो रो कर पंजाब पूछता किसने है दोआब बनाया?
किसने मंदिर गुरुद्वारों को अधर्म का अंगार दिखाया?
खरे देहली पर हो किसने पौरुष को ललकारा?
किसने पापी हाँथ बढ़ाकर माँ का मुकुट उतरा?
काश्मीर के नंदन वन को किसने है सुलगाया?
किसने छाती पर अन्यायों का अम्बार लगाया?
आँख खोल कर देखो घर मैं भीषण आग लगी है|
धर्म सभ्यता संस्कृति खाले, दानव क्षुधा जगी है||
हिन्दू कहने मैं शर्माते मूढ़ लजाते लाज न आती?
घोड़ पतन है अपनी माँ को माँ कहने मैं फटती छाती||
जिसने रक्त पिलाकर पला क्षणभर उसकी ओर निहारो
सुनी सुनी मांग निहारो बिखरे-बिखरे केश निहारो
जबतक दुशाशन है बेनी कैसे बंध सकती है?
कोटि कोटि संतति है माँ की लाज न लुट सकती है|
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी – बडी जीभ की वही कसम,
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
- रामधारी सिंह दिनकर