ये कविता मैंने अपने ग्रेजुअसन के दिनों मैं लिखा था.. हिंदी मैं वर्तनी सम्बन्धी दिक्कत मुझे बचपन से ही थी.. लेकिन फिर भी हिन्दी से जबरदस्त लगाव था! अब इस बात का डर नहीं है.. बहुत software हैं phonetic typing के लिए . ये मैंने २००१ मैं लिखा था.. डायरी मैं तिथि लिखने की आदत न होने की वजह से महीना और दिन बता पाना संभव नहीं है..
जब मैंने उसे देखा
सूरज की पहली किरण सी,
या फिर,
ढलती शाम सी,
नहीं! ऐसी भी नहीं थी वो-
सवेरा या शाम लगे जो,
क्यूंकि, सवेरा या शाम मुझे,
इतनी अच्छी कभी नहीं लगी,
इतनी उम्मंगे कभी नहीं सुलगी|
या थी वो, मेरी भावनाओं का प्रतिरूप?
या मेरी आकांक्षाओं का ही स्वरुप?
हे कृष्ण! क्या यही है प्रेम-अगन-
अगर यही तो, क्यों नहीं जल रहा मेरा मन?
अगर यही तो, क्यों नहीं तरपता मेरा मन?
अगर नहीं तो, फिर ये आकर्षण क्या है?
अगर नहीं तो, फिर ये प्रलोभन क्या है?
जब मैंने उसे देखा
दूसरी बार,
उसकी आँखे,
मुझे बुला रही थी,
और मुझे तरपा रही थी,
या, शायद -
कुछ और भी बता रही थी,
फिर देखा मैंने उसमें अपनी ही-
भावनाओं का समावेस|
या फिर उसमें खुद को ही-
देखा था निरुद्धेश्य ||
जब मैंने उसे देखा
अंतिम बार,
उसकी आँखे,
निरुद्धश्य देख रही थी,
अनिक्षाओं से भरी मुस्कराहट,
व्यंग बाण फ़ेंक रही थी,
या शायद-
ये वो नहीं थी, जिसे मैंने चाहा था,
वो तो मुझी मैं खो गई, जिसे मैंने सराहा था|
आज मैं उसकी आँखों मैं सरलता,
नहीं देख रहा था |
जिसे मैंने चाहा था उसमें, निश्छलता,
नहीं देख रहा था ||
जब मैंने उसे देखा
सूरज की पहली किरण सी,
या फिर,
ढलती शाम सी,
नहीं! ऐसी भी नहीं थी वो-
सवेरा या शाम लगे जो,
क्यूंकि, सवेरा या शाम मुझे,
इतनी अच्छी कभी नहीं लगी,
इतनी उम्मंगे कभी नहीं सुलगी|
या थी वो, मेरी भावनाओं का प्रतिरूप?
या मेरी आकांक्षाओं का ही स्वरुप?
हे कृष्ण! क्या यही है प्रेम-अगन-
अगर यही तो, क्यों नहीं जल रहा मेरा मन?
अगर यही तो, क्यों नहीं तरपता मेरा मन?
अगर नहीं तो, फिर ये आकर्षण क्या है?
अगर नहीं तो, फिर ये प्रलोभन क्या है?
जब मैंने उसे देखा
दूसरी बार,
उसकी आँखे,
मुझे बुला रही थी,
और मुझे तरपा रही थी,
या, शायद -
कुछ और भी बता रही थी,
फिर देखा मैंने उसमें अपनी ही-
भावनाओं का समावेस|
या फिर उसमें खुद को ही-
देखा था निरुद्धेश्य ||
हे कृष्ण! क्या यही है प्रेम-अगन-
अगर यही तो, क्यों नहीं भर रहा मेरा मन?
अगर यही तो, क्या नहीं है ये एक व्योम सुमन?
अगर नहीं तो, फिर यह उज्जवलता क्या है?
अगन नहीं तो, फिर ये प्रज्जव्लता क्या है?
जब मैंने उसे देखा
अंतिम बार,
उसकी आँखे,
निरुद्धश्य देख रही थी,
अनिक्षाओं से भरी मुस्कराहट,
व्यंग बाण फ़ेंक रही थी,
या शायद-
ये वो नहीं थी, जिसे मैंने चाहा था,
वो तो मुझी मैं खो गई, जिसे मैंने सराहा था|
आज मैं उसकी आँखों मैं सरलता,
नहीं देख रहा था |
जिसे मैंने चाहा था उसमें, निश्छलता,
नहीं देख रहा था ||
हे कृष्ण! क्या यही है प्रेम-अगन-
अगर यही तो, क्यों नहीं नाम इसका द्वेश-जलन?
अगर यही तो, क्या नहीं था रोया तेरा मन?
ये प्रेम-अगन इसलिए की, जलाता है यह मन!
अगर नहीं तो, फिर वह अपनापन क्या था?
अगन वही तो, फिर यह द्वेश-जलन क्या है?
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- Ravi S. Singh
- Ravi S. Singh
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