Tuesday, July 31, 2012

हम ही हम हैं.. तो क्या हम हैं!


वैसे तो मैंने कभी पूजा पाठ किया नहीं और ना ही इसकी कभी जरुरत समझा.. मंदिरों मैं गया क्यूंकि लोग खीच के ले गए और कभी कभी बहुत से मंदिर मैं इस्सलिये गया की बहुत सुन्दर थे.. |
कुछ लोगों के टिका टिप्पणी को यदि सही मान लूँ तो मैं नास्तिक हूँ.. मतलब जिसकी आस्था नहीं है भगवान मैं|.. परन्तु मैं अन्य शब्दों पे भी गौर करना चाहता हूँ जैसे.. निराध्म, अधर्मी इत्यादी.. ऐसे कुछ लोगों को शायद इन शब्दों का ज्ञान नहीं है.. नहीं तो कहीं यही कह रहे होते मुझे..
एक बड़ी सुन्दर सी बात सामने आती है जब भारत की बात करते हैं.. और वो गाना गुनगुनाने का मन करता है.. ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने’.. दिल गर्व से चौरा  हो जाता है की हम उस देश के वाशी हैं.. जिस देश मैं गंगा बहती है.. (वैसे गंगा की हालत आज क्या है बताने की जरुरत नहीं है).. एक राष्ट्र की तरह हम पहले थे जिन्होंने शुन्य का आविष्कार किया, पहले थे जिन्होंने शल्य चिकित्सा (Operation) का आविष्कार किया, पहले थे विश्व मैं जिन्होंने आयुर्वेद (Medication) को लिपिबद्ध किया.. पहले थे जिन्होंने हाथी को सेना मैं शामिल किया (या जो कर पाए).. पहले थे जिन्होंने अर्थशास्त्र का निर्माण किया.. और पहले राष्ट्र जिसने गणतंत्र का अविष्कार किया|
तो चलिए गर्व करने के लिए तो इतिहास है .. बेहद समृद्ध.. ज्ञान है.. बेहद कुशल.. फिर क्या हुआ.. फिर ऐसी क्या बात हुई की भारत को ४०० साल तक गुलाम बना दिया गया.. एक ऐसा देश जिसे अलेक्सेंडर महान नहीं जीत पाया.. आखिर क्या बात हुई..?
राष्ट्र की परिभाषा उनके लोग होते हैं.. उनकी कार्यकुशलता होती है. उनकी निर्माण की क्षमता होती है. राष्ट्र किसी भूमी का नाम नहीं है.. जैसे लोगों के बिना घर नहीं होता.. उसी तरह नागरिक के बिना राष्ट्र नहीं होता..
अब दूशरा पहलु ये है की हम भले ही कभी समृद्ध रहे हों.. लेकिन उस्सी समयकाल मैं अन्य सभ्यता भी थी जो हम से कमतर ही सही लेकिन लगातार प्रगति कर रही थी.. जैसे की मंगोलियन सभ्यता.. (वो कितने मानव थे मैं इस बहस मैं नहीं फसना चाहता.. क्यूंकि ये मेरे इस लेख का विषय नहीं है).. जिन्होंने घोड़े पे कब्ज़ा किया.. आज की संदर्व मैं ये बात शायद उतनी महत्वपूर्ण ना लगे .. लेकिन ये उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि थी... और इस्सी तरह से पूर्व का समाज भी उन्नतिशील था..
कहते हैं.. सेना राष्ट्र की पहचान होती है.. उसके प्रगति का धोतक होती है.. ये आज भी लागु है और उस समय भी था.. | लेकिन ज्ञान ही राष्ट्र को समर शक्ति देती है.. और जब ये कमजोर हुआ तो भारत को गुलाम बना दिया गया.. इसके ज्ञान केंद्र (Knowledge Centre) को बर्बाद कर दिया गया.. और फिर इस ४०० बर्षों तक कोई अविष्कार.. कोई नई अवधारणा इस राष्ट्र के कोख से नहीं निकली.. (कुछ अपवाद को यदि छोड दिया जाये तो)..
अन्य अर्थ मैं इसी भारत की विचारधारा, और प्रगतिशीलता को कुंद कर दिया गया.. और ज्यादा अच्छा तो ये कहना होगा की लगभग रोक ही दिया गया.. | आप एक जानवर को भी बंधने पे मजबूर नहीं कर सकते हैं.. जब तक की उससे ये ना मनवा लें की तुम्हें बंधना ही होगा.. तुम इस्सिलिये इस धरती पे आये हो.. तुम इस्सी लिए बने हो.. और ये केवल उसके आत्म ज्ञान को खतम कर के ही किया जा सकता है.. जैसे ही उसका ये ज्ञान खतम होगा की वो कोई है और उसका अस्तित्व है.. वो बंधने के लिए बिना सोचे विचारे तैयार रहेगा.. दूध देगा .. मांस देगा.. और ये कोई जटिल तर्क नहीं है.. बहुत सामान्य है..
इन ४०० बर्षों तक हमारी मानसिकता यही बना दी गयी थी.. और हम प्रगतिहीन हो गए थे.. जबकि अन्य राष्ट्र प्रगतिशील रहे.. प्रेस का अविष्कार किया.. बन्धूक का किया.. तोप का किया.. नई शासनतंत्र का किया.. परमाणु बम का किया.. और जैसे ही हमें ज्ञान आया.. हम रस्सियाँ तोड़ के भागे.. गुलाम तो नहीं रहे .. लेकिन अभी तक जानवर ही थे.. वैसे लोग थे जिनकी विचारधारा अभी तक कुंद थी.. आप मान लें की किसी और प्रगतिशील सभ्यता मैं .. आम आदमी नाम का कोई शब्द नहीं है.. और ना ही इन्हें भेड़ की तरह समझा जाता है..
१९४७ जब हम आजाद हुएं .. और एक और राष्ट्र का जन्म हुआ कहते हैं.. इतना बड़ा मानव परस्थान/प्रवास (Migration) और इस वजह से नरसंहार.. आज तक के ज्ञातव्य इतिहास मैं नहीं हुआ.. वैसे भी प्रवास(Migration) सभ्यता की देन नहीं है.. असभ्य (Animal) ही प्रवास (Migrate) करते हैं.. ये वो पहला तथ्य है इस बात का की जो मैंने ऊपर कहा स्वतंत्र जानवर थे.. | और इस की वजह भी बेहद अमानवीय थी.. तर्क था धर्म.. और इस्सी शब्द से मैंने ये लेख लिखना शुरू किया था.. |
अब मुझ जैसे निराध्म को कोई समझाए की ये है क्या.. ? इन्हें जिस भी नाम से पुकारा गया.. या ये चाहे जहाँ भी पूजा या नवाज पढ़ने जाते हों.. इंसान के अलावा कुछ और भी थे क्या.. ? ये कोन बताएगा की अच्छा कोन और क्या है? लेकिन जैसा की मैंने पहले कहा.. ये इंसान तो थे ही नहीं.. तो इतनी समझ कहाँ से आती.. इतना आत्म ज्ञान भी कहाँ से आता.. और यदि ये कुतर्क ना हो तो इनके स्वतंत्रता के लिए लड़ना भी भेडचाल ही था.. किसी ने कहा और लड़ परे.. बिना किसी आत्मिक ज्ञान के.. फिर भी होना तो ये चाहिए था की.. अंत मैं ज्ञान आ जाये.. और आया भी.. (इतना भी निराशावादी नहीं हूँ मैं) लेकिन.. ये बहुत काफी नहीं है.. आज के संदर्व मैं भी.. शायद हमें और इंतेजार करना होगा.. और आत्मज्ञान की जरुरत होगी.. और खुद की तरफ देखना होगा और समझना होगा.. की हम क्या हैं.. और हम क्या होना चाहते हैं..

रवि श. सिंह (Ravi S. Singh)

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