Monday, August 27, 2012

घोष बाबु

हमारे बारे अच्छे मित्र हैं जब भी बोलते हैं निरीह type का लगते हैं.. आज भी बोले की ये मनमोहन जी कितने अच्छे हैं और न जाने कैसे कैसे घिनौने लोगों ने इन्हें बिना मतलब का ठोक रखा है.. कभी 2G तो कभी कोयला.. ?
घिनौना शब्द मुझे तड़ से लगा.. तो मैंने पूछ ही लिया की घोष बाबु जो इनका विरोध करे वो घिनौना कैसे और ये किसने आपको कह दिया? तो बोले सब ही तो कह रहे हैं..
:D :D :D

Wednesday, August 15, 2012

करो प्रण, हो एकजुट सब बंधन तोडो


करो प्रण, हो एकजुट सब बंधन तोडो

एक रक्त के बिज से बने हो..

सबकी एक ही माता

पिया वही दूध, खायी वही मिटटी

ऐ! भारत के भाग्य निर्माता

क्या बकते हो – ‘ब्राह्मण – दलित’

जंजीरें तोड़ो

करो प्रण, हो एकजुट अब नाते जोड़ो

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- Ravi S. Singh

Friday, August 10, 2012

मेरी डायरी - भाग 1

वर्ष -2004 तिथि : अलिखित
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बहुत बार सोचा है की जिंदगी मैं कुछ बदलना चाहिए... और कुछ नहीं तो मेरे सोचने का ढंग! लेकिन यह भी मेरे चेहरे की तरह है जो नहीं बदलती.... और फिर कुछ भी नहीं बदलता |
.... चलो ना बदलना है तो ना बदले... २० साल जिया हूँ.. वही दिन वही रात.. आगे भी जी लूँगा.. !

या फिर शायद बहुत कुछ सोचने के लिए बांकी है.. कुछ अपने बारे मैं...| जिंदगी का हर क्षण तात्कालिक होता है .. और हर क्षण की एक शुरुआत होती है.. एक मध्य और .. एक अंत.. | अंत ? .. यानि खत्म.. और खत्म होने का गम अकेले शायद मुझे ही होता हो ऐसा नहीं है | ऐसे कही पहलु हैं जिसे मैंने देखा ही नहीं या शायद किसी डर से देखना ही नहीं चाहा .. क्यूँ? .. हमेशा भागता रहा.. खुशी दुशरों मैं ढूंढता रहा.... और खुशी कभी नहीं मिली.. |

नहीं मैं खुशी की बात नहीं करूँगा.. क्यूंकि खुशी और गम तो क्षण का मध्य है.. आज मैं बात करूँगा निराशा और संतुष्टि की .. जो अन्त है.. जिसके बारे मैं मैंने कभी भी नहीं सोचा!

मुझे नहीं पता संतुष्टि क्या होती है क्यूंकि जब भी मिली तो पूरी नहीं.. उसके साथ एक अजीब सी निराशा भी थी.. या फिर निराशा नहीं तो डर!.. असल मैं संतुष्टि क्या होती है? शायद किसी को नहीं पता.. क्यूंकि संतुष्टि अपने दमन मैं डर समेटे होती है.. डर यही .. कुछ मिल गया तो खो जाने का .. और नहीं मिला तो संतुष्टि नहीं .. निराशा मिलती है |

दुनिया के साथ भीड़ मैं पागलों की तरह भागता हूँ.. कभी प्यार की तलाश मैं.. कभी पैसे की तलाश मैं.. तो कभी रिश्ते की तलाश मैं.. बाकि सब की तरह खाली हाथ .. बस भागता जा रहा हूँ.. रेगिस्तान मैं पानी के लिए.. एक ना खत्म होने वाली दौड़... लक्ष्य दिखाई ही नहीं देता.. यहाँ केवल रास्ते हैं.. एक रास्ता दुशरे से जुड़ता जाता है.. दोनों तरफ भूरी झाड़ियाँ.. और मेरे साथ भागते लोग.. किसी के पीछे मैं.. और मेरे पीछे कोई और.. ! पाने की खुशी और.. छूटने का गम.. निराशा और संतुष्टि के बारे मैं सोचे ही कौन..! .. एक अन्त .. नई शुरुआत .. उतनी ही बोझिल .. उतनी ही बदहवास .. वही सड़क .. वही झाड़ियाँ.. कुछ भी नया नहीं.. सब कुछ वही पुराना... कुछ बदला?

मेरे साथ चलने वाले लोग बदले.. जिन्हें मैं दोस्त कहता था वो बदले.. जिन्हें मैंने दुश्मन कहा , वो बदले ...... बांकी सबकुछ वही रहा.. अजनबी अपनों की तरह.. अपने अजनबियों की तरह.. या शायद मुझे अपने.. और अजनबी की परिभाषा ही नहीं पता या फिर.. यहाँ कोई अजनबी और अपना नहीं है.. बस वो लोग हैं.. जिनके साथ मैं भाग रहा हूँ.. कुछ की तलाश मैं.. पर पता नहीं क्या!

Friday, August 3, 2012

क्यूँ युहीं ये फालतू .. जनता पिसती है..?


जो फ़िक्र-ऐ-मौजू आते हैं तो उन्हें आने भी दो

जिन्हें मौका मिला है घबराने का .. उन्हें घबराने भी दो..

उन्हें तला ना जाये नर्क मैं तो फ़िक्र ही क्या?

तुम तो चढ़े शूली पर अब मौत को घबराने भी दो..


to be continued...........